Friday, December 16, 2005
क्या गांगुली के साथ अन्याय हुआ?
गुरुवार, 15 दिसंबर, 2005 को प्रकाशित
यूँ तो और भी ग़म हैं जमाने में गांगुली के सिवा... पर क्या करें महाराजा का जो ग़म है चर्चे तो होंगे ही. डालमिया राज में गांगुली का बुरे प्रदर्शन के बाद भी बने रहना राजनीति थी और आज पवार के राज में संतोषजनक प्रदर्शन के बाद भी बेआबरू कर टीम से निकाले जाना भी राजनीति ही है. लिहाजा इसमें किसी भी तरह का कोई तर्क ढूंढ़ना बेकार है. तरस आता है गांगुली जैसे उन बेहतरीन खिलाड़ियों पर जो क्रिकेट की राजनीति का शिकार होते हैं. शशि सिंह, मुंबई
Wednesday, November 30, 2005
भाजपाः एक प्याले में खुशी एक में ग़म
मंगलवार, 29 नवंबर, 2005 को प्रकाशित
यह कहना ग़लत होगा कि भाजपा को बिहार में हुए चुनाव के नतीजों से संजीवनी मिली है. वहाँ जनादेश लालू के खिलाफ और कुछ हद तक नीतीश कुमार की पार्टी को मिला है. लिहाज़ा केद्र की सत्ता हाथ से निकलने के बाद भ्रमित भाजपा की सेहत पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ने वाला. भाजपा की सच्चाई बिहार की जीत नहीं, मध्य प्रदेश का कलह है. कांग्रेस पर गांधी परिवार से आगे नहीं सोच पाने का आरोप लगाने वाली भाजपा ने भी अटल-आडवाणी से आगे नहीं सोच पाने की आदत डाल ली है, जो आज भाजपा के भविष्य पर भारी पड़ रहा है. शशि सिंह, मुंबई
Friday, November 25, 2005
बीबीसी हिंदी डॉटकॉम आपकी नज़र में
शनिवार, 26 नवंबर, 2005 को प्रकाशित
बीबीसी हिंदी की तारीफ़ करने बैठूँ तो पूरा पन्ना कम पड़े इसलिए सीधे अपेक्षाओं पर आ जाता हूँ. यहाँ अपेक्षाएँ पूरी होती हैं इसलिए बेझिझक अपनी मांगें रख रहा हूँ. 1- इंटरनेट पर रेडियो कार्यक्रमों की ऑडियो फ़ाइल को रैम के अलावा वेव और एमपी3 फ़ॉरमैट में भी उपलब्ध करवाएँ. 2- हिंदी के नाम पर जहाँ हर तरफ़ हिंग्लिश की अंधी गलियाँ हैं ऐसे में इस साइट पर संदर्भ स्रोत की भी ज़िम्मेदारी है लिहाज़ा जिस तरह आपने Learning English का पन्ना रखा है वैसा ही कुछ 'अच्छी हिंदी' के प्रसार के लिए भी करें. 3- एक वक़्त था जब इंटरनेट पर हिंदी बमुश्किल ही देखने को मिलती थी पर आज इसका काफी विकास हो चुका है. इस विकास से जुड़ी सूचनाओं के भूखों की निगाहें भी आपकी ओर हैं. 4- ट्रांजिस्टर के दौर से मीलों आगे आ चुके बीबीसी हिंदी से ब्लॉगिंग और पॉडकास्टिंग की दुनिया की ख़बरें भी अपेक्षित हैं. शशि सिंह, मुंबई.
Friday, October 28, 2005
सीबीआई जाँच से कितनी उम्मीद?
शुक्रवार, 28 अक्तूबर, 2005 को प्रकाशित
साँप के गुज़र जाने के बाद लकीर पीटने की कहावत सुनी थी. लकीर मिटने के बाद साँप को ढूँढने जैसी कहावत अगर कभी गढ़ी गई तो उसकी मिसाल के तौर पर सिख विरोधी दंगों का ज़िक्र ज़रूर होगा. शशि सिंह, मुंबई
Friday, October 21, 2005
क्या ये विपत्ति अवसर लेकर आई है?
शुक्रवार, 21 अक्तूबर, 2005 को प्रकाशित
विपत्तियों आती ही हैं रिश्तों को फिर से परिभाषित करने के लिए. अगर 1947 के बँटवारे के रूप में आई विपत्ति ने हमारे रिश्तों को दुश्मनी का नाम दिया तो शायद 2005 का भूकंप हमारे रिश्तों को दोस्ती का जामा पहनाना चाहता है. दोनों तरफ के हुक़्मरान कुदरत के दिये इस मौके को पहचानें और रिश्तों में एक ऐसा जलाजला पैदा करें जो दुश्मनी की बुनियाद को नेस्तनाबूत कर दे. शशि सिंह, मुम्बई
विपत्तियों आती ही हैं रिश्तों को फिर से परिभाषित करने के लिए. अगर 1947 के बँटवारे के रूप में आई विपत्ति ने हमारे रिश्तों को दुश्मनी का नाम दिया तो शायद 2005 का भूकंप हमारे रिश्तों को दोस्ती का जामा पहनाना चाहता है. दोनों तरफ के हुक़्मरान कुदरत के दिये इस मौके को पहचानें और रिश्तों में एक ऐसा जलाजला पैदा करें जो दुश्मनी की बुनियाद को नेस्तनाबूत कर दे. शशि सिंह, मुम्बई
Wednesday, October 19, 2005
क्या बिहार में कुछ बदलेगा?
बुधवार, 19 अक्तूबर, 2005 को प्रकाशित
बिहार में मौजूदा राजनीतिक विकल्पों से किसी चमत्कार की उम्मीद करना भोलापन होगा. वैसे भी बिहारी जनता अब भोली नहीं रह गई है. अब वे अपनी समस्याओं का समाधान राजनीति से इतर तलाशने में लग गई है. यही बात पूरे राजनीतिक परिवेश के लिए पहेली बनी हुई है. दुनिया को गणतंत्र का उपहार देने वाला बिहारी समाज संभवत: किसी नई व्यवस्था की बुनावट में लगा है. इसीलिए हमें दिल थामकर बिहार और बिहारियों पर नज़र रखनी होगी. शशि सिंह, मुंबई
Sunday, October 16, 2005
क्या गांगुली को दोबारा मौका मिलना चाहिए?
रविवार, 16 अक्तूबर, 2005 को प्रकाशित
इसमें कोई शक नहीं कि गांगुली ने भारतीय क्रिकेट को अपने अंदाज में नई ऊँचाई तक पहुँचाया है. लेकिन एक महान खिलाड़ी होने का ये क़तई मतलब नहीं कि बुरे प्रदर्शन के बाद भी वह टीम में बना रहे. अगर गांगुली का खेल दोबारा से अपने सुनहरे दिनों की तरफ लौटता है तो उन्हें फिर से कप्तान के रूप में देखना हर भारतीय की चाहत होगी... लेकिन तब तक चयनकर्ताओं को उन्हें कप्तान तो क्या टीम में भी रखने से पहले चार बार सोचना चाहिए. शशि सिंह, मुम्बई
Friday, October 14, 2005
क्या सीमाओं पर लचीला रुख़ अपनाया जाए?
शुक्रवार, 14 अक्तूबर, 2005 को प्रकाशित
बेशक भूकंप के ज़रिये भगवान ने दोनों मुल्कों में बसे अपने चहेतों को हमसे दूर अपने दरबार में बुला लिया है. मगर अवाम को उनका एक साफ़ संदेश है; अपने आँसुओं के ज़रिये रिश्तों पर जमीं गर्द को धो डालो. शशि सिंह, मुम्बई
Monday, October 10, 2005
भारत और पाकिस्तान में भूकंप की त्रासदी
सोमवार, 10 अक्तूबर, 2005 को प्रकाशित
थोड़ी सी ताक़त मिलते ही हम दुनिया फ़तह करने के मंसूबे बाँधने लगते हैं. इसी अहम में कुदरत को कमज़ोर और बेबस समझ उसे रौंदने की हिमाकत करने से भी नहीं चूकते... पर भूल जाते हैं कि हर किसी के सब्र की इंतहा होती है. पिछले एक साल में पूरी दुनिया में कुदरत के क़हर से हुई तबाही के आंकड़ों ने हमें हमारी औकात बता दी है. ताज़ा भूकंप भी कुदरत को हमसे मिले दर्द की प्रतिक्रिया भर है. शशि सिंह, मुम्बई.
Thursday, July 07, 2005
लंदन के विस्फोटों पर प्रतिक्रिया
गुरुवार, 07 जुलाई, 2005 को प्रकाशित
आतंकवादियों की कोई जाति, धर्म, आस्था या राष्ट्र नहीं होता. वे तो भटके हुए ऐसे लोग हैं जो मानवता के लिए भस्मासुर साबित हो रहे हैं. वैसे इन भस्मासुरों को विध्वंस की ये ताक़त कहीं न कहीं इन महादेवों के ही आशीर्वाद से मिला है जो इनकी हरकतों से बिफरे पड़े हैं. शशि सिंह, मुम्बई
Saturday, July 02, 2005
लाइव 8 से क्या फ़ायदा होगा?
शनिवार, 02 जुलाई, 2005 को प्रकाशित
दुनिया भर में एक साथ संगीत समारोह आयोजित करके धनी देशों का ध्यान अफ्रीका की ग़रीबी की ओर खींचने की कोशिश! ग़म भूलाने को ग़ालिब ख़्याल अच्छा है, मगर नतीजा शायद ही कुछ निकले. वैसे एक बात तो है कि ऐसे समारोह भले ही अमीर देशों का ध्यान न खींच पाएं पर दुनिया भर के संगीतप्रेमियों की तवज्जो ज़रूर हासिल कर लेते हैं. शशि सिंह, मुम्बई
Thursday, June 30, 2005
कॉल सेंटर की निगरानी कैसे हो?
गुरुवार, 30 जून, 2005 को प्रकाशित
भारत में एक उफान की तरह शुरू हुए कॉलसेंटर व्यवसाय में गुणवत्ता तो है मगर गोपनीयता बनाए रखने के लिए थोड़ी निगरानी की ज़रुरत है. साथ ही मौजुदा क़ानून के बारे में कर्मचारियों में बेहतर समझ विकसित करना भी ज़रुरी है. भारतीय कॉलसेंटर के कर्मचारियों में उत्साह तो बहुत देखा जाता है. इसी अनुपात में यदि उनमें ज़िम्मेदारियों का अहसास भी जोड़ने में कामयाबी मिल गई तो भविष्य में न सिर्फ ग्राहकों और कंपनियों का भरोसा बढ़ेगा बल्कि भारतीय बीपीओ उद्योग नई ऊचाइयाँ तय करेगा. शशि सिंह, मुम्बई
Monday, June 27, 2005
मुख़्तार माई मामले पर राय
सोमवार, 27 जून, 2005 को प्रकाशित
ऐसे मामलों के सिर्फ़ मीडिया में आने से कुछ सकारात्मक नहीं होने वाला. ज़रूरत इस बात की है कि दोषियों को कड़ी सज़ा मिले. शशि सिंह, मुम्बई
Monday, June 20, 2005
पसंदीदा किताब कौन सी है?
सोमवार, 20 जून, 2005 को प्रकाशित
कई किताबों ने अलग-अलग ढंग से मुझ पर अपना प्रभाव छोड़ा है. फिर भी मैं कह सकता हूं कि प्रेमचंद की 'गोदान' मेरी पसंदीदा किताब है. प्रेमचंद का हर शब्द मुझे प्यारा है और उनके आदर्शवाद के तो क्या कहने. लेखन में उनकी कोई सीमाएं नहीं थीं लेकिन समाज में एक लेखक की सीमाओं से क्षुब्ध प्रेमचंद ने अपने इस उपन्यास में बिना आदर्शवादी विकल्प के सीधे-सीधे यथार्थ पेशकर मुझे चौंका दिया. यह मेरे प्रिय लेखक की अपने आप से बग़ावत थी जो गाहे-बगाहे मुझे आज भी झकझोरती रहती है. शशि सिंह, मुम्बई
Thursday, June 16, 2005
दोहरी नागरिकता में इतनी देर क्यों?
गुरुवार, 16 जून, 2005 को प्रकाशित
नागरिकता क़ानून में संशोधन का प्रस्ताव संसद में मानसून सत्र में पेश किया जाएगा, यहां तक तो ठीक है. चर्चा हो तो संभवत: प्रस्ताव पास भी हो जाए. समस्या तो यह है कि सत्र के दौरान किसी दागी मंत्री का भूत जाग जाएगा या मुमकिन है किसी नेता का अपमान संसद के अपमान से बड़ा हो जाए. जब इतने अहम मुद्दे हमारे माननीय सांसदों के सामने हों तो भला नागरिकता क़ानून में संशोधन जैसे छोटे-मोटे कामों के लिए वक्त कहां बचेगा? शशि सिंह, मुम्बई
Monday, June 13, 2005
क़ानून के सामने 'ख़ास लोग'
सोमवार, 13 जून, 2005 को प्रकाशित
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले भारत के लिए 'खास' और 'आम' कानून दुर्भाग्य की बात है. इस तरह का दोहरा व्यवहार ही वंचित वर्ग में असंतोष का बीज बोता है. यही बीज जब पेड़ बन जाते हैं तब उसे अलगाववादी, आतंकवादी, नक्सली और न जाने क्या-क्या नाम दे दिये जाते हैं. भई बात सीधी है, झोपड़े का हक़ मार कर बंगलों की चारदीवारी ऊंची करनेवाले राजकीय कानून को भले तोड़-मरोड़ लें, मगर प्रकृति के न्याय से बच नहीं पाएंगे. शशि सिंह, मुम्बई
Monday, June 06, 2005
आडवाणी के बयान पर राय
सोमवार, 06 जून, 2005 को प्रकाशित
पता नहीं क्यों भाजपा और संघ परिवार के मुद्दे अक्सर भावनात्मक ही क्यों होते हैं. क्या फर्क पड़ता है यदि आडवाणी ने जिन्ना को 'धर्मनिरपेक्ष नेता' कह दिया. इसे तो मैं भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का इतिहास के प्रति दुराग्रहों के खुलते गांठ के रूप में देखता हूं. दो देशों के रिश्तों में सुधार के लिए यदि तथाकथित विचारधारा (अहं) से थोड़ा उन्नीस-बीस होना भी पड़े तो भी यह घाटे का सौदा नहीं होगा. पर हां, ऐसी ही उम्मीद हमें पाकिस्तान के दक्षिणपंथियों से भी होगी. शशि सिंह, मुम्बई
Friday, June 03, 2005
किस फ़िल्म ने छोड़ी गहरी छाप
शुक्रवार, 03 जून, 2005 को प्रकाशित
'मदर इंडिया' से मैं सबसे ज़्यादा प्रभावित रहा हूँ. फ़िल्म का कथानक, संवाद, अदाकारी, संगीत या फिर निर्देशन... हर मोर्चे पर यह फ़िल्म बेहतरीन सिनेमा का नमूना तो पेश करती है, मगर यह फ़िल्म मेरे लिए सिर्फ़ सिनेमा न होकर सामाजिक सरोकारों का दस्तावेज़ है. यह फ़िल्म उस दौर में आई जब आज़ाद भारत अपने को एक राष्ट्र रूप में स्थापित करने की जद्दोजहद में लगा था. मेरी नज़र में यह फ़िल्म किशोर राष्ट्र को उम्दा संस्कारों की सीख देने वाली नायाब कलाकृति है. शशि सिंह, मुम्बई
Wednesday, June 01, 2005
फ़िल्मों में धूम्रपान पर राय
बुधवार, 01 जून, 2005 को प्रकाशित
सिनेमा और टीवी के पर्दे पर सिगरेट के इस्तेमाल पर लगी रोक बेशक एक सराहनीय कदम है लेकिन धूम्रपान से होने वाले नुक़सानों के ख़िलाफ़ ऐसे क़दम तब तक नाकाफ़ी ही साबित होंगे जब तक कि इसकी जड़ यानी कि इसके निर्माण पर रोक न लगाई जाए. भला नैतिकता का यह कैसा पाठ कि एक तरफ तो हमारी सरकार ऐसी पाबंदियों कि बात करती है वहीं दुसरी तरफ तम्बाकू उद्योग से प्राप्त होने वाले भारी राजस्व को भी छोड़ना नहीं चाहती. शशि सिंह, मुम्बई
Monday, May 30, 2005
क्या आप भारतीय प्रधानमंत्री से सहमत हैं?
सोमवार, 30 मई, 2005 को प्रकाशित
प्रधानमंत्री का यह बयान सौ फ़ीसदी सही है. कश्मीर के बीच की सीमा को अर्थहीन बनाना ही कश्मीर समस्या का सबसे बेहतर समाधान होगा, क्योंकि तब न रहेगा बांस न बजेगी बांसूरी. मेरी दुआ है कि अगर हम इसी तरह सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब हम 1947 की कड़वी यादों को भूलाकर जर्मनी के इतिहास को दोहराएँगे. शशि सिंह, मुम्बई
Wednesday, May 25, 2005
सुनील दत्त से जुड़ी यादें
बुधवार, 25 मई, 2005 को प्रकाशित
जितना सार्थक जीवन दत्त साहब ने जिया उतना कम ही लोगों को नसीब होता है. वे एक उम्दा कलाकार और ईमानदार राजनेता ही नहीं बल्कि इस सबसे बढ़कर एक बेहतरीन इनसान थे. मुझे यह कहते हुए तनिक भी झिझक नहीं कि 75 साल का यह बुजूर्ग हम युवाओं से कहीं ज्यादा युवा था. दत्त साहब हमें आपकी कमी हमेशा खलेगी. शशि सिंह, मुम्बई
Monday, May 16, 2005
क्या मीडिया सही भूमिका निभा रहा है?
सोमवार, 16 मई, 2005 को प्रकाशित
'सबसे तेज़' बनने के चक्कर में अक्सर मीडिया की भद्द पिटती रही है. 'सबसे तेज़' का शार्टकट सनसनी है और यह सनसनी जंक फ़ूड की तरह है जिसे खाकर चटख़ारे तो लिये जा सकते हैं मगर उसकी क़ीमत समाज के बिगड़ते स्वास्थ्य के रूप में चुकानी पड़ती है. 'न्यूज़वीक' की अपुष्ट ख़बर की वजह से 15 लोगों की मौत यही ज़ाहिर करता है कि 'न्यूज़वीक' जैसे मीडिया संगठनों को या तो अपनी ताक़त का अंदाज़ा नहीं है या फिर वे इसके बेजा इस्तेमाल का ही मन बना चुके हैं. शशि सिंह, मुम्बई
हड़ताल का सहारा कितना उचित है?
सोमवार, 16 मई, 2005 को प्रकाशित हड़ताल बेशक एक अनुत्पादक और नकारात्मक प्रतिक्रिया है. यह संस्थान और कर्मचारियों के आपसी हितों के टकराव का सतह पर आ जाने सूचक भी है. इसे अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र का द्वंद्व भी माना जा सकता है. मेरा मानना है कि इस नाजुक मुद्दे पर दोनों पक्षों को लाभ-हानि और अहं के संकुचित दायरे से ऊपर उठकर सोचने की जरुरत है. ऐसा करके ही इस दुनिया को प्रगतिशील और सौहार्दपूर्ण जगह बनाई जा सकती है. शशि सिंह, मुम्बई
Monday, May 09, 2005
बीबीसी हिंदी की पैंसठवीं सालगिरह
सोमवार, 09 मई, 2005 को प्रकाशित ख़बरों की दुनिया में बीबीसी का न तो कभी कोई सानी था न आज है. आज मैं ख़ुद एक पत्रकार हूँ लेकिन बीबीसी का श्रोता और पाठक बने रहने का सुख एक अलग ही अहसास है? हमारे दादाजी के समय शुरू हुआ बीबीसी हिंदी का सफ़र हमारे पोतो-परपोतों और उससे भी आगे की पीढ़ियों तक अनवरत जारी रहे यही मेरी दुआ है. शशि सिंह, मुम्बई
Friday, May 06, 2005
ब्रितानी चुनाव पर प्रतिक्रिया
शुक्रवार, 06 मई, 2005 को प्रकाशित
टोनी ब्लेयर के नेतृत्व में लेबर पार्टी का एक बार फिर से सत्ता में आना नि:संदेह ब्रिटेन के इतिहास के लिए एक बड़ी घटना है. ब्लेयर को चुनकर अंग्रेजी जनता ने उनकी पीठ तो थपथपाई है, मगर जीत की बढ़त को कम करके इराक पर उनकी नीतियों के लिए हल्के से उनके कान भी मरोड़े हैं. शशि सिंह, मुम्बई
Wednesday, April 27, 2005
आमने-सामने और आप
बुधवार, 27 अप्रैल, 2005 को प्रकाशित
हर समस्या का अपना समाधान खुद उस समस्या में ही निहित होता है. बेशक पिछले कुछ समय में संसद की गरिमा अपने निचले स्तर पर जा पहुंची है, मगर संसद में पहुंची युवा पीढ़ी इस मामले में संवेदनशील मालूम पड़ती है. मुझे भारतीय लोकतंत्र की ताकत और इस उत्साही पीढ़ी के तेज पर पूरा भरोसा है. बस थोड़ा इंतजार कीजिए... शशि सिंह, मुम्बई
Tuesday, April 26, 2005
क्या नेताओं को इस्तीफ़ा देना चाहिए?
मंगलवार, 26 अप्रैल, 2005 को प्रकाशित
किसी भी संस्था या विभाग का प्रमुख होने के नाते हर अच्छी-बुरी बात की नैतिक ज़िम्मेदारी सीधे मंत्री की बनती है. जिस तरह किसी भी छोटे-बड़े काम का श्रेय लेने के लिए मंत्री महोदय उतावले रहते हैं ठीक उसी तरह दुर्घटनाओं या विभागों में भ्रष्टाचार की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं की बनती हैं. लिहाजा मेरा मत इस्तीफे के हक़ में है. शशि सिंह, मुम्बई
Tuesday, April 19, 2005
राजनीति से संन्यास
मंगलवार, 19 अप्रैल, 2005 को प्रकाशित
अगर कॉरपोरेट शब्दावली में बात करें तो उम्रदराज राजनीतिज्ञों को कार्यकारी प्रमुख की जगह परामर्शदाता की भूमिका में आ जाना चाहिए, लेकिन सेवानिवृत्त कतई नहीं होना चाहिए. मैं उस युवा पीढ़ी को सौभाग्यशाली मानता हूं जो इनके अनुभव के मोतियों को अपने उत्साह के धागे में पिरोने में कामयाब हो पाते हैं. शशि सिंह, मुम्बई
Friday, April 15, 2005
क्या हो बदलाव बॉलीवुड में?
शुक्रवार, 15 अप्रैल, 2005 को प्रकाशित
वो कहते हैं न कि 'क्वालिटी इज़ बेटर दैन क्वांटिटी'. हॉलीवुड और बॉलीवुड के साथ भी यही बात है. सिर्फ थोक के भाव में फिल्में बनाना ही बहादुरी नहीं होती, ज़रूरी यह है कि बॉलीवुड जो भी बनाए सोच-समझकर एक रणनीति के तहत बनाये. इसके लिए फिल्म निर्माण के हर मोर्चे पर तैयारी पुख़्ता करके ही निर्माताओं को मैदान में उतरना चाहिए. शशि सिंह, मुम्बई
Monday, April 11, 2005
भारत-चीन की नई शुरुआत?
सोमवार, 11 अप्रैल, 2005 को प्रकाशित
चीन की सफलता से आज पूरी दुनिया चमत्कृत है. उसकी सफलता से चौंधियाया भारत भी अपनी कामयाबी के लिए मंथन में लगा है. मगर भारत को चीनी मॉडल की तरफ झुकने से पहले यह नहीं भूलना चाहिए कि वह चीन है और हम भारत. निरंकुश शासन के नेतृत्व में हासिल की गई उसकी चमक के पीछे एक खोखलापन है जो सोवियत संघ की तरह शासन के साथ कभी भी फीकी पड़ सकती है, मगर भारतीय भदेसपन ही भारत की ताकत है. शशि सिंह, मुम्बई
Wednesday, April 06, 2005
क्या बस सेवा से तनाव घटेगा?
बुधवार, 06 अप्रैल, 2005 को प्रकाशित
श्रीनगर और मुज़फ़्फ़राबाद के बीच बस सेवा को लंबे समय तक जारी रखना आसान तो नहीं होगा मगर नामुमकिन भी नहीं है. दरअसल दोनों देशों की आवाम भले ही रिश्तों में बेहतरी चाहती है मगर कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके लिए इन पड़ोसियों के बीच अमन वजूद पर संकट बन सकता है. मेरी यही दुआ है कि यह बस सिर्फ सड़क की दूरी ही नहीं दिलों की दूरी मिटाने में भी कामयाब हो. शशि सिंह, मुम्बई
Sunday, April 03, 2005
पोप जॉन पॉल के बारे में राय
रविवार, 03 अप्रैल, 2005 को प्रकाशित
वैटिकन में 26 साल तक अपने अनुयायियों के पथप्रदर्शक के रूप में पोप ने ख़ुद को चर्च की चारदीवारी तक सीमित नहीं किया बल्कि अपनी भूमिका को नए आयाम दिए. शायद यही वजह थी कि दूसरे धर्म-संप्रदायों के लोगों के बीच भी वे समान रूप से लोकप्रिय रहे. इस शांतिदूत को मेरा नमन. शशि सिंह, मुम्बई
Friday, March 04, 2005
भारत में राज्यपाल की भूमिका
शुक्रवार, 04 मार्च, 2005 को प्रकाशित
राज्यों में राष्ट्रपति का प्रतिनिधि माना जाने वाला पद 'राज्यपाल' लोकतंत्र में आस्था रखने वालों के लिए ख़तरे की घंटी बन गया है. अब तक हम सिर्फ़ बाहर के देशों के बारे में सुना करते थे कि चुने हुए लोगों को सत्ता से महरूम रखा गया. वैसे अभी तक भारत में ऐसा तो मुमकिन नहीं हुआ है, मगर पिछले कुछ समय से कई राज्यपालों का जैसा मनमाना रवैया रहा है उसे देखकर डर ज़रूर लगता है. शशि सिंह, मुम्बई
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