Thursday, June 30, 2005
कॉल सेंटर की निगरानी कैसे हो?
गुरुवार, 30 जून, 2005 को प्रकाशित
भारत में एक उफान की तरह शुरू हुए कॉलसेंटर व्यवसाय में गुणवत्ता तो है मगर गोपनीयता बनाए रखने के लिए थोड़ी निगरानी की ज़रुरत है. साथ ही मौजुदा क़ानून के बारे में कर्मचारियों में बेहतर समझ विकसित करना भी ज़रुरी है. भारतीय कॉलसेंटर के कर्मचारियों में उत्साह तो बहुत देखा जाता है. इसी अनुपात में यदि उनमें ज़िम्मेदारियों का अहसास भी जोड़ने में कामयाबी मिल गई तो भविष्य में न सिर्फ ग्राहकों और कंपनियों का भरोसा बढ़ेगा बल्कि भारतीय बीपीओ उद्योग नई ऊचाइयाँ तय करेगा. शशि सिंह, मुम्बई
Monday, June 27, 2005
मुख़्तार माई मामले पर राय
सोमवार, 27 जून, 2005 को प्रकाशित
ऐसे मामलों के सिर्फ़ मीडिया में आने से कुछ सकारात्मक नहीं होने वाला. ज़रूरत इस बात की है कि दोषियों को कड़ी सज़ा मिले. शशि सिंह, मुम्बई
Monday, June 20, 2005
पसंदीदा किताब कौन सी है?
सोमवार, 20 जून, 2005 को प्रकाशित
कई किताबों ने अलग-अलग ढंग से मुझ पर अपना प्रभाव छोड़ा है. फिर भी मैं कह सकता हूं कि प्रेमचंद की 'गोदान' मेरी पसंदीदा किताब है. प्रेमचंद का हर शब्द मुझे प्यारा है और उनके आदर्शवाद के तो क्या कहने. लेखन में उनकी कोई सीमाएं नहीं थीं लेकिन समाज में एक लेखक की सीमाओं से क्षुब्ध प्रेमचंद ने अपने इस उपन्यास में बिना आदर्शवादी विकल्प के सीधे-सीधे यथार्थ पेशकर मुझे चौंका दिया. यह मेरे प्रिय लेखक की अपने आप से बग़ावत थी जो गाहे-बगाहे मुझे आज भी झकझोरती रहती है. शशि सिंह, मुम्बई
Thursday, June 16, 2005
दोहरी नागरिकता में इतनी देर क्यों?
गुरुवार, 16 जून, 2005 को प्रकाशित
नागरिकता क़ानून में संशोधन का प्रस्ताव संसद में मानसून सत्र में पेश किया जाएगा, यहां तक तो ठीक है. चर्चा हो तो संभवत: प्रस्ताव पास भी हो जाए. समस्या तो यह है कि सत्र के दौरान किसी दागी मंत्री का भूत जाग जाएगा या मुमकिन है किसी नेता का अपमान संसद के अपमान से बड़ा हो जाए. जब इतने अहम मुद्दे हमारे माननीय सांसदों के सामने हों तो भला नागरिकता क़ानून में संशोधन जैसे छोटे-मोटे कामों के लिए वक्त कहां बचेगा? शशि सिंह, मुम्बई
Monday, June 13, 2005
क़ानून के सामने 'ख़ास लोग'
सोमवार, 13 जून, 2005 को प्रकाशित
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले भारत के लिए 'खास' और 'आम' कानून दुर्भाग्य की बात है. इस तरह का दोहरा व्यवहार ही वंचित वर्ग में असंतोष का बीज बोता है. यही बीज जब पेड़ बन जाते हैं तब उसे अलगाववादी, आतंकवादी, नक्सली और न जाने क्या-क्या नाम दे दिये जाते हैं. भई बात सीधी है, झोपड़े का हक़ मार कर बंगलों की चारदीवारी ऊंची करनेवाले राजकीय कानून को भले तोड़-मरोड़ लें, मगर प्रकृति के न्याय से बच नहीं पाएंगे. शशि सिंह, मुम्बई
Monday, June 06, 2005
आडवाणी के बयान पर राय
सोमवार, 06 जून, 2005 को प्रकाशित
पता नहीं क्यों भाजपा और संघ परिवार के मुद्दे अक्सर भावनात्मक ही क्यों होते हैं. क्या फर्क पड़ता है यदि आडवाणी ने जिन्ना को 'धर्मनिरपेक्ष नेता' कह दिया. इसे तो मैं भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का इतिहास के प्रति दुराग्रहों के खुलते गांठ के रूप में देखता हूं. दो देशों के रिश्तों में सुधार के लिए यदि तथाकथित विचारधारा (अहं) से थोड़ा उन्नीस-बीस होना भी पड़े तो भी यह घाटे का सौदा नहीं होगा. पर हां, ऐसी ही उम्मीद हमें पाकिस्तान के दक्षिणपंथियों से भी होगी. शशि सिंह, मुम्बई
Friday, June 03, 2005
किस फ़िल्म ने छोड़ी गहरी छाप
शुक्रवार, 03 जून, 2005 को प्रकाशित
'मदर इंडिया' से मैं सबसे ज़्यादा प्रभावित रहा हूँ. फ़िल्म का कथानक, संवाद, अदाकारी, संगीत या फिर निर्देशन... हर मोर्चे पर यह फ़िल्म बेहतरीन सिनेमा का नमूना तो पेश करती है, मगर यह फ़िल्म मेरे लिए सिर्फ़ सिनेमा न होकर सामाजिक सरोकारों का दस्तावेज़ है. यह फ़िल्म उस दौर में आई जब आज़ाद भारत अपने को एक राष्ट्र रूप में स्थापित करने की जद्दोजहद में लगा था. मेरी नज़र में यह फ़िल्म किशोर राष्ट्र को उम्दा संस्कारों की सीख देने वाली नायाब कलाकृति है. शशि सिंह, मुम्बई
Wednesday, June 01, 2005
फ़िल्मों में धूम्रपान पर राय
बुधवार, 01 जून, 2005 को प्रकाशित
सिनेमा और टीवी के पर्दे पर सिगरेट के इस्तेमाल पर लगी रोक बेशक एक सराहनीय कदम है लेकिन धूम्रपान से होने वाले नुक़सानों के ख़िलाफ़ ऐसे क़दम तब तक नाकाफ़ी ही साबित होंगे जब तक कि इसकी जड़ यानी कि इसके निर्माण पर रोक न लगाई जाए. भला नैतिकता का यह कैसा पाठ कि एक तरफ तो हमारी सरकार ऐसी पाबंदियों कि बात करती है वहीं दुसरी तरफ तम्बाकू उद्योग से प्राप्त होने वाले भारी राजस्व को भी छोड़ना नहीं चाहती. शशि सिंह, मुम्बई
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